शरद पूर्णिमा कथा
एक साहूकार था जिसकी दो सुंदर, सुशील कन्याएं थी। दोनों बहनों में से एक धार्मिक रीती रिवाजों में बहुत आगे थी और एक का इन सब मे मन नहीं लगता था। बड़ी बहन सभी रीती रिवाज मन लगाकर करती थी, पर छोटी आनाकानी करके करती थी।
देखते ही देखते दोनों बहनें बड़ी हो गई और दोनों का विवाह हो गया। दोनों ही बहने शरद पूर्णिमा का व्रत करती थी, लेकिन छोटी के सभी धार्मिक कार्य अधूरे ही होते थे। इसी कारण उसकी संतान जन्म लेने के कुछ दिन बाद मर जाती थी। दुखी होकर उसने एक महात्मा से इसका कारण पूछा, महात्मा ने उसे बताया तुम्हारा मन पूजा पाठ में नहीं हैं। इसलिए तुम शरद पूर्णिमा का व्रत पूरे विधि विधान के साथ करों, महात्मा की बात सुनकर छोटी बहन ने पूर्णिमा का व्रत विझि विधान के साथ किया। फिर भी उसका पुत्र जीवित नहीं बचा। उसने अपनी मरी हुई संतान को एक चौकी पर लिटा दिया और अपनी बहन को घर में बुलाया और अनदेखा कर बहन को उस चौकी पर ही बैठने कहा।
जैसे ही बहन उस पर बैठने गई उसके स्पर्श से बच्चा रोने लगा। बड़ी बहन एक दम से चौंक गई। उसने कहा अरे तू मुझे कहां बैठा रही थी। यहां तो तेरा लाल हैं। अभी इसे कुछ हो जाता तो। तब छोटी बहन ने बताया कि मेरा पुत्र तो मर गया था, पर तुम्हारे पुण्यों के कारण तुम्हारे स्पर्श मात्र से उसके प्राण वापस आ गये। उसके बाद से प्रति वर्ष सभी गांव वासियों ने शरद पूर्णिमा का व्रत पूरे विधि विधान के साथ करना शुरु कर दिया।
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