कोजागर पूजा व्रत कथा
मगध देश में वलित नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। यूँ तो वह अनेक विद्याओं का धनी था तथा नित्य सन्ध्यास्नान आदि करता था किन्तु आर्थिक रूप से वह अत्यन्त निर्धन था। यदि कोई उसके घर आकार कुछ दान दे जाये तो स्वीकार कर लेता था अन्यथा वह किसी से कुछ भी नही माँगता था। जितना वह ब्राह्मण सज्जन था उसकी पत्नी उतनी ही अधिक दुष्ट व कलहप्रिय थी। वह प्रतिदिन इस बात पर क्लेश करती थी कि, उसकी बहन का विवाह कितने धन सम्पन्न परिवार में हुआ है और वह सोने - चाँदी के आभूषणों से सजी-धजी घूमती है। ब्राह्मण की पत्नी अन्य लोगों के मध्य भी अपने पति के कुल एवं विद्या को तिरिस्कृत करती थी और उसने एक प्रण लिया कि, जब तक वो धनवान नहीं होंगे, तब तक वह पति के हर आदेश के विपरीत ही कार्य करेगी।
एक दिन तो उसने अपने पति से राजा के यहाँ से धन चोरी कर लाने को कहा तथा ऐसा न करने पर मारने की चेतवानी दे डाली। वह दुर्जन स्त्री नाना प्रकार से वलित को पीड़ित करने लगी। कभी सहसा ही रुदन करने लग जाती तो कभी भोजन त्याग देती, कभी अत्यधिक भोजन ग्रहण करने लगती तो कभी अपना सिर फोड़ने लगती किन्तु वह ब्राह्मण किसी से भिक्षा माँगने की अपेक्षा उस स्त्री की प्रताड़ना सहना अधिक उचित समझता था। वह अपनी पत्नी से कभी कुछ नही कहता तथा जो प्राप्त हो जाता उसी में सन्तोष कर लेता था।
एक बार श्राद्धपक्ष का समय था एवं घर में श्राद्ध हेतु आवश्यक समस्त सामग्री भी उपलब्ध थी किन्तु ब्राह्मण इस बात से चिन्तित था कि उसकी पत्नी उसे घर में श्राद्ध आदि कर्म नहीं करने देगी और कलह करेगी। वह यह सब मन ही मन विचार कर ही रहा था कि, उसका एक मित्र वहाँ आ गया तथा वलित से उसकी चिन्ता का कारण पूछा। वलित ने अपने मित्र को सारी दुविधा बतायी। सारी बात सुनते ही उसका मित्र प्रसन्नतापूर्वक बोला कि, यह तो कोई समस्या ही नही है। यदि तुम्हारी पत्नी जो तुम कहते हो उसका उल्टा ही करती है तो तुम उससे जो भी कार्य तुम्हें करवाना है उसके विपरीत कार्य करने को कहोगे, तो तुम्हारी समस्या का समाधान हो जायेगा । इतना सुनते ही ब्राह्मण वलित हर्षित हो उठा और बोला कि, तुम सही कहते हो मुझे ऐसा ही करना चाहिये।
ब्राह्मण सन्ध्याकाल अपने घर आया तथा पत्नी से बोला कि, हे चण्डि! परसों मेरे पिता का श्राद्ध है किन्तु उन्होने मेरे लिये किसी प्रकार की धन - सम्पत्ति आदि नहीं छोड़ी जिसके कारण आज मुझे यह निर्धनता भोगनी पड़ रही है। अतः तुम उनके श्राद्ध की कोई व्यवस्था मत करना और यदि करो भी तो दुश्चरित्र व जुआरी ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना। उसने पुनः अपनी पत्नी से कहा कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों को न्यौता मत देना।
ब्राह्मण के वचन सुनकर उसकी पत्नी ने उसके कथन से विपरीत करने की तैयारी आरम्भ कर दी। उसने विभिन्न प्रकार के व्यञ्जन पकाये तथा नगर के उत्तम ब्राह्मणों को निमन्त्रण दिया। अपने पति के कथन का उल्टा करने की धुन में पत्नी ने विधि - विधान से श्राद्धकर्म सम्पन्न किया। श्राद्ध के अन्त में पिण्डदान करने के पश्चात ब्राह्मण ने पत्नी से कहा कि, तू पिण्डों को प्र्वाहित करना भूल गईं है, इन्हें गङ्गा जी में प्र्वाहित कर आना। इतना सुनते ही उसकी पत्नी ने पिण्डों को शौच की कूप में डाल दिया। इस घटना से वलित के हृदय को गहरा आघात पहुँचा और वह अत्यन्त क्रोध में अपने घर से माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के सङ्कल्प के साथ निकल पड़ा। उसने प्रण लिया कि जब तक माता लक्ष्मी उस पर कृपा नहीं करेंगी, तब तक वह निर्जन वन में निवास कर मात्र कन्द मूल आदि का सेवन करेगा एवं घर लौटकर नहीं आयेगा। लक्ष्मी जी को प्रसन्न करेने के लिए वह तीस दिनों तक धर्म नदी के तट पर बैठा रहा और उसी बीच आश्विन माह की पूर्णिमा आ गयी।
उस वन में कालीय नाग के वंश की कन्यायें लक्ष्मी जी की प्रसन्नता के लिये व्रत कर रहीं थीं। उन्होंने सुन्दर- स्वच्छ वस्त्र धारण कर रखे थे एवं उनका निवास स्थान श्वेत रँग की छटा बिखेर रहा था। नाग कन्याओं ने पञ्चामृत, रत्न एवं दर्पण आदि अर्पित कर देवी लक्ष्मी का श्रद्धापूर्वक पूजन किया। प्रथम पहर पूजन में व्यतीत हो गया तदोपरान्त जुआ खेलने की तैयारी हुयी, किन्तु जुआ खेलने के लिये चार व्यक्तियों की आवश्यकता थी और उन्हें चौथा भागीदार नहीं मिल रहा था। वह वन में चौथे व्यक्ति को खोज ही रहीं थीं कि, उनकी दृष्टि नदी तट पर बैठे वलित ब्राह्मण पर गयी, जो मुखाकृति से उन्हें सज्जन प्रतीत हुआ। नाग कन्याओं ने उससे पूछा कि आप कौन हैं? कृपया हमारे साथ लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने हेतु जुआ खेलने चलें।
ब्राह्मण ने उत्तर दिया, आप कैसी अनुचित बात कर रही हैं, जुआ खेलने से लक्ष्मी का क्षय व धर्म का नाश होता है। कन्या ने कहा कि, आप बोलते तो पण्डितों की भाँति हैं किन्तु आपके विचार मूर्खों जैसे हैं। इतना कहकर वह ब्राह्मण को अपने साथ मन्दिर में ले गयीं तथा उसको प्रसाद व नारियल पानी प्रदान किया। तत्पश्चात् 'माता लक्ष्मी प्रसन्न हों' ऐसा बोलते हुये ब्राह्मण के साथ जुआ खेलना आरम्भ कर दिया।
सर्वप्रथम नाग कन्यायों ने दाँव पर अमूल्य रत्न लगाये किन्तु ब्राह्मण के पास कुछ नहीं था इस कारण सर्वप्रथम उसने अपनी लँगोट दाँव पर लगायी जिसे वह हार गया। तत्पश्चात् उसने अपना जनेऊ को दाँव पर लगा दिया किन्तु नाग कन्याओं ने वह भी जीत लिया। अब कोई अन्य वस्तु न होने पर ब्राह्मण ने अपने शरीर को ही दाँव पर लगा दिया। इसी बीच मध्य रात्रि हो गयी और देवी लक्ष्मी भगवान श्री नारायण के साथ संसार में भ्रमण करते हुये वहाँ से गुजरीं। भ्रमण करते - करते उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मण कौपीन व यज्ञोपवीत विहीन होकर घोर चिन्ता व निराशा से घिरा हुआ बैठा है। यह दृश्य देख भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि, आपका व्रत करने वाले ब्राह्मण की ऐसी दुर्दशा क्यों है? कृपया अपने इस भक्त के कष्ट का निवारण करके, उसे धन-वैभव व सुख-सौभाग्य प्रदान करें।
इतना सुनते ही माता लक्ष्मी ने ब्राह्मण पर अपनी कृपा दृष्टि डाली तथा उसकी समस्त दरिद्रता को नष्ट कर दिया। लक्ष्मी जी की कृपा होते ही ब्राह्मण का रूप कामदेव के समान स्त्रियॉं को मोहित करने वाला हो गया। उसका यह मनोहारी रूप देखकर नाग कन्याओं ने उससे कहा कि, हे विप्रवर, हमनें तुम्हें जीत लिया है इस कारण से अब तुम हमारे पति बनकर हमारे अनुसार कार्य करो। ब्राह्मण ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। ब्राह्मण ने सभी कन्याओं से गन्धर्व विवाह किया तथा उन्हें नाना प्रकार के रत्नों के साथ वापस अपने घर के लिये निकल पड़ा।
वापस अपने घर पहुँचने पर ब्राह्मण का ऐसा मानना था कि, उसकी पत्नी के अनादर व तिरस्कार के कारण ही उसका भाग्य परिवर्तित हुआ है, ब्राह्मण ने अपनी पत्नी का सम्मान किया जिससे वह अत्यधिक प्रसन्न हो गयी तथा अपने पति की आज्ञा का पालन करने लगी। इस व्रत के प्रभाव से वलित ब्राह्मण की समस्त समस्याओं का अन्त हो गया तथा वह सर्व रूप से सुखी व सम्पन्न हो गया।
इस प्रकार कोजागर व्रत कथा सम्पन्न हुई, विधिवत् इस कथा के श्रवण से व्रत का फल भी प्राप्त होता है।
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